इस बार के लोकसभा चुनाव में कई तरह के मुद्दे आम जनता से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक सामने आ रहे हैं | चुनाव प्रचार में बेरोज़गारी , भुखमरी , हिन्दू राष्ट्र , मुस्लिम राष्ट्र , एनआरसी , CAA , और ED को लेकर काफ़ी चर्चा चली और अभी भी चल ही रही है | अब ऐसे पार्टियों को चुनाव में मिलने वाले चंदे को लेकर एक बड़ा विवाद खड़ा हो गया है | जब तक आम जनता और विपक्ष शांत थी तब तक यह मुद्दा ठंडे बक्से में पड़ा हुआ था लेकिन जैसे ही विपक्ष ने इस मुद्दे पर हथौड़ा मारा , मामला फिर से गरमा गया | ये मामला है इलेक्टोरल बॉन्ड का , नेताओं से जुड़े उनकी पार्टी के चंदे का , SBI के झूठ और सच का है , काले धन का | इलेक्टोरल बॉन्ड जब से आया है तबसे सबके मन में कुछ ना कुछ सवाल लगातार उठ रहे हैं और इन्ही सवालों के जवाब के लिए विपक्ष सुप्रीम कोर्ट पहुँच गया | इलेक्टोरल बॉन्ड वाले मुद्दे को शुरू करने से पहले ये जानना बड़ा ज़रूरी है कि इलेक्टोरल बॉन्ड आख़िर है क्या चीज़ ?
आपको बता दें कि चुनावी या इलेक्टोरल बॉन्ड स्कीम 2017 के बजट में उस वक्त के वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पेश की थी। 2 जनवरी 2018 को केंद्र सरकार ने इसे नोटिफाई कियाथा । ये एक तरह का प्रॉमिसरी नोट होता है। इसे बैंक नोट भी कहते हैं। इसे कोई भी भारतीय नागरिक या कंपनी खरीद सकती है। अगर सरल भाषा में समझे तो पार्टियां आपसे तमाम मौक़ों पर वोट मांगती हैं और वोट मांगने के लिए तमाम पोस्टर, होर्डिंग छपवाती हैं, रैली आयोजित करती हैं, इस सबमें बहुत सारा पैसा लगता है | ये पैसा पार्टियों को चंदे से मिलता है और चंदा देने के कई तरीक़े हैं | जिसमे सबसे आम तरीक़ा है कि कोई कंपनी या व्यक्ति चेक काटकर पार्टी खाते में जमा करवा दे, या इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसफ़र कर दे | एक और तरीक़ा है | अपारदर्शी तरीक़ा, जिसे हम और आप चुनावी बॉन्ड या इलेक्टोरल बॉन्ड के नाम से जानते हैं | इस योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक राजनीतिक दलों को धन देने के लिए बॉन्ड जारी कर सकता है | इन्हें ऐसा कोई भी दाता ख़रीद सकता है, जिसके पास एक ऐसा बैंक खाता है, जिसकी केवाईसी की जानकारियां उपलब्ध हैं | इलेक्टोरल बॉन्ड में भुगतानकर्ता का नाम नहीं होता है | योजना के तहत भारतीय स्टेट बैंक की निर्दिष्ट शाखाओं से 1,000 रुपये, 10,000 रुपये, एक लाख रुपये, दस लाख रुपये और एक करोड़ रुपये में से किसी भी मूल्य के इलेक्टोरल बॉन्ड ख़रीदे जा सकते हैं | चुनावी बॉन्ड्स की अवधि केवल 15 दिनों की होती है, जिसके दौरान इसका इस्तेमाल सिर्फ़ जन प्रतिनिधित्व अधिनियम के तहत पंजीकृत राजनीतिक दलों को दान देने के लिए किया जा सकता है | केवल उन्हीं राजनीतिक दलों को इलेक्टोरल बॉन्ड के ज़रिये चंदा दिया जा सकता है, जिन्होंने लोकसभा या विधान सभा के लिए पिछले आम चुनाव में डाले गए वोटों का कम से कम एक प्रतिशत वोट हासिल किया हो | योजना के तहत चुनावी बॉन्ड जनवरी, अप्रैल, जुलाई और अक्टूबर के महीनों में 10 दिनों की अवधि के लिए ख़रीद के लिए उपलब्ध कराए जाते हैं | इन्हें लोकसभा चुनाव के वर्ष में केंद्र सरकार द्वारा अधिसूचित 30 दिनों की अतिरिक्त अवधि के दौरान भी जारी किया जा सकता है | अब आते हैं मुद्दे पर |
इलेक्टोरल बॉन्ड के आते ही विपक्ष में खलबली मच गयी | कांग्रेस नेता पी चिदंबरम ने 30 अक्टूबर को भाजपा पर आरोप लगाया कि सत्तारूढ़ भाजपा ने अपने इरादे साफ कर दिए हैं कि वह बड़े कॉर्पोरेट्स से अपारदर्शी, गुप्त और षड्यंत्रकारी तरीके से अपना धन जुटाएगी। कांग्रेस ऐसे किसी भी विचार का विरोध करती है। हम पारदर्शी और लोकतांत्रिक तरीके से फंडिंग में यकीन रखते हैं। वहीँ चिदंबरम के बयान पर पलटवार करते हुए बीजेपी के आईटी सेल हेड अमित मालवीय ने कहा कि कांग्रेस ज्यादा पारदर्शी और लोकतांत्रिक पॉलिटिकल फंडिंग सिस्टम को लागू करने की कोशिशों का विरोध करती है। सच्चा लोकतंत्र तब है, जब छोटे व्यापारी और बड़े कॉर्पोरेट किसी भी पार्टी को डोनेशन दे सकें और अगर कोई अलग पार्टी सत्ता में आती है तो उन्हें अपने से बदला लिए जाने का डर न हो। इसके बाद इलेक्टोरल बॉन्ड के सपोर्ट में अटार्नी जनरल ऑफ़ इंडिया आर वेंकटरमणी ने 29 अक्टूबर को सुप्रीम कोर्ट से कहा कि संविधान ने नागरिकों को इन फंड्स का सोर्स जानने का मौलिक अधिकार नहीं दिया है। उन्होंने कोर्ट को चेतावनी दी कि इलेक्टोरल बॉन्ड को रेगुलेट करने के लिए पॉलिसी डोमेन में न आए। ये स्कीम किसी भी व्यक्ति के मौजूदा अधिकारों का उल्लंघन नहीं करती है। साथ ही यह स्कीम डोनर्स को पहचान उजागर न करने की सुविधा भी देती है। ये क्लीन मनी के डोनेशन को बढ़ावा देता है। इससे डोनर अपने टैक्स देने के दायित्व जानेगा। उन्होंने कहा कि ये स्कीम किसी भी प्रकार के अधिकारों का उल्लंघन नहीं करती। अटॉर्नी ने कहा कि कोर्ट राज्य की कार्रवाई की समीक्षा केवल तब ही करता है जब मौजूदा अधिकारों का टकराव हो।वेंकटरमणी के मुताबिक, नागरिकों को ये अधिकार तो है कि वे उम्मीदवारों की क्रिमिनल हिस्ट्री जानें, लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि उन्हें पार्टियों की इनकम और पैसों के सोर्स जानने का अधिकार है।
आपको बता दें कि अरुण जेटली ने 2017 में इसे पेश करते वक्त दावा किया था कि इससे राजनीतिक पार्टियों को मिलने वाली फंडिंग और चुनाव व्यवस्था में पारदर्शिता आएगी। ब्लैक मनी पर अंकुश लगेगा। वहीं, विरोध करने वालों का कहना था कि इलेक्टोरल बॉन्ड खरीदने वाले की पहचान जाहिर नहीं की जाती है, इससे ये चुनावों में काले धन के इस्तेमाल का जरिया बन सकते हैं। बाद में योजना को 2017 में ही चुनौती दी गई, लेकिन सुनवाई 2019 में शुरू हुई। 12 अप्रैल 2019 को सुप्रीम कोर्ट ने सभी पॉलिटिकल पार्टियों को निर्देश दिया कि वे 30 मई, 2019 तक में एक लिफाफे में चुनावी बॉन्ड से जुड़ी सभी जानकारी चुनाव आयोग को दें। हालांकि, कोर्ट ने इस योजना पर रोक नहीं लगाई। बाद में दिसंबर, 2019 में याचिकाकर्ता एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) ने इस योजना पर रोक लगाने के लिए एक आवेदन दिया। इसमें मीडिया रिपोर्ट्स के हवाले से बताया गया कि किस तरह चुनावी बॉन्ड योजना पर चुनाव आयोग और रिजर्व बैंक की चिंताओं को केंद्र सरकार ने दरकिनार किया था। भारत की तीन बड़ी संस्थाओ ने इलेक्टोरल बॉन्ड को ग़लत बताया था | जिसमे सुप्रीम कोर्ट , चुनाव आयोग और आरबीआई ने इसपर अपनी टिप्पड़ी भी दी थी | सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड के जरिए काले धन को कानूनी किया जा सकता है। विदेशी कंपनियां सरकार और राजनीति को प्रभावित कर सकती हैं।’ चुनाव आयोग का कहा था कि, ‘चंदा देने वालों के नाम गुमनाम रखने से पता लगाना संभव नहीं होगा कि राजनीतिक दल ने धारा 29 (बी) का उल्लंघन कर चंदा लिया है या नहीं। विदेशी चंदा लेने वाला कानून भी बेकार हो जाएगा।’ वहीँ आरबीआई ने कहा कीं, ‘इलेक्टोरल बॉन्ड ‘मनी लॉन्डरिंग’ को बढ़ावा देगा। इसके जरिए ब्लैकमनी को व्हाइट करना संभव होगा।’
इलेक्टोरल बॉन्ड को लेकर सुप्रीम कोर्ट में वकील प्रशांत भूषण का आमना-सामना जस्टिस खन्ना और जस्टिस गवई से हुआ जिसमे कोर्ट रूम की लाइव बाते भी सामने आयीं | कोर्ट रूम में प्रशांत भूषण ने कहा, केंद्रीय सत्तारूढ़ दल को कुल योगदान का 60 प्रतिशत से ज्यादा मिला। अगर किसी नागरिक को उम्मीदवारों, उनकी संपत्ति, उनके आपराधिक इतिहास के बारे में जानने का अधिकार है तो उन्हें यह भी पता होना चाहिए कि राजनीतिक दलों को कौन फंडिंग कर रहा है? बॉन्ड स्कीम कहती है कि अगर ED को पैसों के बारे में जानकारी चाहिए तो SBI खुलासा कर सकता है, लेकिन सभी एजेंसियां सरकार के नियंत्रण में हैं और SBI भी। ऐसे में किसी को इसके बारे में पता ही नहीं चल सकेगा। प्रशांत भूषणः ये बॉन्ड सत्ता में पार्टियों को रिश्वत के रूप में दिए जाते हैं। इससे सरकारी फैसले प्रभावित होते हैं। करीब-करीब सभी बॉन्ड केवल सत्ताधारी पार्टियों को ही मिले। 50% से ज्यादा केवल केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी और बाकी केवल राज्य में सत्तारूढ़ पार्टी को मिले। यहां तक कि 1% भी विपक्षी दलों को नहीं मिला है। इसके बाद जस्टिस खान्ना बोले कि पहले के शासनकाल में भी सत्ताधारी पार्टी को मिलने वाला चंदा, हमेशा गैर- सत्तारूढ़ पार्टियों की तुलना में ज्यादा होता था। जिसके जवाब में प्रशांत भूषण ने कहा हां, ये तो रिश्वत हुई न। जिसके बाद जस्टिस गवई ने सवाल किया कि उम्मीदवार द्वारा अधिकतम कितना खर्च किया जाना है? और इस सवाल का जवाब कपिल सिब्बल ने दियाऔर कहा, संसदीय स्थायी समिति की रिपोर्ट के मुताबिक, यह केवल 70 लाख रुपए है। जिसका समर्तन करते हुए भूषण ने कहा, लेकिन कई उम्मीदवार सीमा से 100 गुना ज्यादा भी खर्च कर रहे हैं। चुनाव आयोग का कहना है कि यह एक भ्रष्ट आचरण है। एक आम आदमी को कैसे पता चलेगा कि 23 लाख कंपनियों में से किसने कितना दान दिया? लेकिन अगर केंद्र SBI पर दबाव डालेगा तो उन्हें इसके बारे में पता चल जाएगा, लेकिन नागरिकों को यह जानने का अधिकार खत्म हो जाता है कि इन राजनीतिक दलों को कौन फंडिंग कर रहा है? तब CJI ने बोला हो सकता है दान देने वाला व्यक्ति खुद ही अपनी पहचान छिपाना चाहता हो, क्योंकि वो बिजनेस करता है। अगर नाम का खुलासा हुआ तो उसे दिक्कत हो सकती है। जिसके जवाब में भूषण ने कहा, यह सिर्फ शेल कंपनियों के माध्यम से राजनीतिक दलों के पास आने वाला काला धन है। इस मामले में मैं आरबीआई का एक लेटर दिखाना चाहूंगा। मैंने आरबीआई के कई पत्रों का हवाला दिया है। चुनौती का पहला आधार यह है कि राजनीतिक दलों का पैसे के सोर्स के बारे में न बताना सूचना के अधिकार का उल्लंघन है।
अब आते हैं SBI और सुप्रीम कोर्ट के मुद्दे पर |
SBI इलेक्टोरल बॉन्ड के मुद्दे पर पूरी तरह से घिर चुकी है | इलेक्टोरल बॉन्ड के साथ यूनीक अल्फान्यूमेरिक नंबर की जानकारी नहीं देने पर सोमवार (18 मार्च) को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। कोर्ट ने 16 मार्च को स्टेट बैंक ऑफ इंडिया (SBI) को नोटिस जारी किया था। जिसमें SBI से 18 मार्च तक बॉन्ड नंबर की जानकारी नहीं दिए जाने पर जवाब मांगा था और CJI डीवाई चंद्रचूड़, जस्टिस संजीव खन्ना, जस्टिस बीआर गवई, जस्टिस जेबी पारदीवाला और जस्टिस मनोज मिश्रा की बेंच ने SBI को कड़ी फटकार लगाई। CJI ने SBI के वकील हरीश साल्वे से कहा- हमने कहा था कि सारी डिटेल्स सामने लाइए। इसमें बॉन्ड नंबर्स की भी बात थी। इन जानकारियों का खुलासा करने में SBI सिलेक्टिव ना रहे और हमारे आदेशों का इंतजार ना करें। CJI ने कहा- SBI चाहती है कि हम उसे बताएं कि किन जानकारियों का खुलासा करना है और वो जानकारी दे देंगे। SBI के रवैये से तो यही लग रहा है। ये उचित नहीं है। कोर्ट ने SBI के चेयरमैन से कहा कि आप 21 मार्च शाम 5 बजे तक एक एफिडेविट भी दाखिल कीजिए कि आपने कोई जानकारी नहीं छिपाई है। बेंच ने 11 मार्च के फैसले में SBI को बॉन्ड की पूरी डिटेल, खरीदी की तारीख, खरीदार का नाम, कैटेगरी की जानकारी देने का निर्देश दिया था। हालांकि, SBI ने सिर्फ बॉन्ड खरीदने वालों और कैश कराने वालों की जानकारी दी थी। डेटा में इस बात का खुलासा नहीं किया गया था कि किस डोनर ने किस राजनीतिक पार्टी को कितना चंदा दिया। SBI ने कहा कि, यूनीक अल्फा न्यूमेरिक नंबर्स से इसका पता चलेगा। तब CJI ने SBI से कहा, कि आप बॉन्ड नंबर की जानकारी सबके सामने रखे। आप एक एफिडेविट भी दाखिल कीजिए कि आपने कोई जानकारी छिपाई नहीं है। जिसके जवाब में SBI के वकील हरीश साल्वे ने कहा, हम ऐसा कर देंगे। हम हर वो जानकारी देंगे, जो हमारे पास है। हम कोई जानकारी छिपाएंगे नहीं। हम बॉन्ड नंबर भी देंगे। वोटर्स की जानकारी में ये बात हो, ये अलग मसला है। अगर फिर याचिकाएं दाखिल की जाती हैं कि इसकी जांच करो, उसकी जांच करो तो मुझे लगता है कि अदालत के आदेश का ये मकसद नहीं है। मीडिया हमेशा हमारे पीछे लगा रहता है। पिटिशिनर्स भी हैं। इन पर कंटेंप्ट ऑफ कोर्ट लगाया जाए। जिसके बाद कोर्ट ने SBI के चेयरमैन 21 मार्च शाम 5 बजे तक एक एफिडेविट दाखिल करने को कहा और यह भी कहा कि हमें बताएं कि आपने कोई जानकारी नहीं छिपाई है। अब देखना यह होगा कि SBI का अगला कदम क्या होगा और कितनी पार्टियां इलेक्टोरल बॉन्ड की चपेट में अपना विश्वास खो देंगी |