उठो जागो और तब तक मत रूको जब तक लक्ष्य की प्राप्ति ना हो जाए

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12 जनवरी स्वामी विवेकानन्द जी के 158वें जन्मदिवस पर उनके जीवन का एक बेहतरीन किस्सा

एक रोज स्वामी विवेकानन्द जी के पिता गरीबों में दान दे रहे थे उस समय स्वामी विवेकानन्द वहीं पास में खड़े थे.उन्होंने अपने पिता जी से कहा आपने सभी को कुछ ना कुछ दिया लेकिन आपने मुझे कुछ ना दिया.उनकी इस बात को सुनकर विवेकानन्द जी के पिता ने कहा बेटा तेरे पास सो तू है जो मैने ही तुझे दिया है.इतने में विवेकानन्द जी शीशे के पास जाकर खड़े हो गए और खुद को शीशे में देखने लगे.पिता की बात को ध्यान करते हुए विवेकानन्द जी खुश हुए और खुद से कहा हां मेरे पास तो मै खुद हूं.

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स्वामी विवेकानन्द जी

इससे विवेकानन्द जी ने हम सभी को सीख दी कि हमारे जीवन मे कोई भी समस्या आये उस समय हमारा कोई साथ दे या ना दे तो कभी उदास नहीं होना चाहिए,हमें ये बात हमेशा याद रखनी चाहिए कि आपके पास आप खुद हो हमें अपना साथ खुद देना चाहिए.हमारे अपने खुद के साथ से ही हम अपनी जीवन की सभी समस्याओं का सामना कर सकते हैं.हमें हर एक मुसीबत मे खुद को इतना मजबूत कर लेना चाहिए कि हम बहुत जल्द ही उस समस्या को अपने विवेक से दूर कर सकें और समाज को ये सन्देश देने में कामयाब हों कि जीवन की हर परेशानी कोई भी चाहे जैसी हो वो हमारे व्यक्तित्व से बड़ी नहीं होनी चाहिए.

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स्वामी निनेकानन्द जी अमेरिका में

स्वामी जी का जीवन परिचय- स्वामी विवेकानन्द जी का जन्म 12 जनवरी 1863 को कलकत्ता में हुआ.उनके बचपन का नाम नरेन्द्र दत्त था उनके पिता विश्वनाथ दत्त पाश्चात्य सभ्यता में विश्वास रखते थे.पिता की इच्छा थी कि वे अपने पुत्र को भी अंग्रेजी की शिक्षा देकर पाश्चात्य ढंग पर चलाएं.नरेन्द्र की बुध्दि बचपन से ही बड़ी तीव्र थी और परमात्मा को पाने की बड़ी ही प्रबल लालसा थी.इसके लिए उन्होंने ब्रह्म समाज को अपनाया लेकिन वहां उनके चित्त को संतोष नहीं मिला.

सन् 1884 में स्वामी जी के पिता विश्वनाथ दत्त की मृत्यू हो गयी और घर का सारा भार अब स्वामी जी के कंधों पर आ गया.अत्यंत गरीबी का सामना करने पर भी स्वामी जी बड़् अतिथि-सेवी थे वो अपने दरवाजे पर आने वाले हर एक गरीब शख्स को स्वंय भूखे रहकर भी उसको भोजन कराते थे.स्वामी जी का दिल इतना बड़ा था कि खुद पूरी रात ठिठुरकर बाहर सो जाते लेकिन घर आये हुए अतिथि को अपने बिस्तर पर सुला देते थे.

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स्वामी जी

स्वामी जी ने बचपन में रामकृष्ण परमहंस की प्रशंसा सुनकर उनके पास तर्क करने के विचार से गए थे लेकिन स्वामी जी के वहां पहुंचते ही परमहंस जी ने उन्हें पहचान लिया कि ये तो वही शिष्य है जिसका उन्हें इतने दिनों से इंतजार था.परमहंस जी की कृपा से स्वामी जी को आत्म साक्षात्कार हुआ और जिसके बाद से ही स्वामी विवेकानन्द उनके शिष्यों में सबसे प्रमुख शिष्य बन गये.

एक बार की बात है जब किसी शिष्य ने गुरुदेव की सेवा में घृणा और लापरवाही दिखाई और घृणा से नाक भौंहें सिकोड़ीं.ये देखकर विवेकानंद जी को गुस्सा आ गया.और उस गुरुभाई को पाठ पढ़ाते हुए गुरुदेव की प्रत्येक वस्तु के प्रति प्रेम दर्शाते हुए उनके बिस्तर के पास रक्त, कफ आदि से भरी थूकदानी उठाकर पूरी पी गए. गुरु के प्रति ऐसी अनन्य भक्ति और निष्ठा के प्रताप से ही वे अपने गुरु के शरीर और उनके दिव्यतम आदर्शों की उत्तम सेवा कर सके. उनके इस महान व्यक्तित्व की नींव में ऐसी गुरुभक्ति, गुरुसेवा और गुरु के प्रति अनन्य निष्ठा थी जिसके दम पर ही स्वामी जी ने लोगों को अपने आदर्शों पर चलने का सन्देश दिया.

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रामकृष्ण परमहंस

25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिए जिसके बाद उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की.सन्‌ 1893 में शिकागो (अमेरिका) में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी जहां स्वामी विवेकानंद जी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप में पहुंचे थे.आपको बता दें कि यूरोप-अमेरिका के लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे.वहां लोगों ने बहुत कोशिश किया कि स्वामी विवेकानन्द  को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले.लेकिन एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला जहां पर उन्होंने अपने संबोधन की शुरूआत से ही वहां बैठे सभी विद्वानों को चकित कर दिया.इस संबोधन के बाद से ही स्वामी जी का अमेरिका में बड़े ही सम्मान के साथ स्वागत किया गया.वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय बन गया.जिसके बाद वो तीन वर्ष तक अमेरिका में रहें और वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे.

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स्वामी विवेकानन्द जी

अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेकों शाखाएं स्थापित की.अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया.वे हमेशा से ही अपने को गरीबों का सेवक कहते थे.भारत के गौरव को देश-देशांतरों में उज्ज्वल करने का उन्होंने सदा प्रयत्न किया.अंत में 4 जुलाई सन्‌ 1902 को उन्होंने देह त्याग किया लेकिन आज भी हम उनकी जन्मतिथि के दिन 12 जनवरी को राष्ट्रीय युवा दिवस के रूप में मनाते हैं.