दाग देहलवी की इस नज्म को पढ़कर आप आंसू रवा होने से नही रोक पाएंगे।

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हक़ीक़त में जो देखना था न देखा

तुझे देख कर वो दुई उठ गई है
कि अपना भी सानी न देखा न देखा

उन आँखों के क़ुर्बान जाऊँ जिन्हों ने
हज़ारों हिजाबों में परवाना देखा

बहुत दर्द-मंदों को देखा है तू ने
ये सीना ये दिल ये कलेजा न देखा

वो कब देख सकता है उस की तजल्ली
जिस इंसान ने अपना ही जल्वा न देखा

बहुत शोर सुनते थे इस अंजुमन का
यहाँ आ के जो कुछ सुना था न देखा

सफ़ाई है बाग़-ए-मोहब्बत में ऐसी
कि बाद-ए-सबा ने भी तिनका न देखा

उसे देख कर और को फिर जो देखे
कोई देखने वाला ऐसा न देखा

वो था जल्वा-आरा मगर तू ने मूसा
न देखा न देखा न देखा न देखा

गया कारवाँ छोड़ कर मुझ को तन्हा
ज़रा मेरे आने का रस्ता न देखा

कहाँ नक़्श-ए-अव्वल कहाँ नक़्श-ए-सानी
ख़ुदा की ख़ुदाई में तुझ सा न देखा

तिरी याद है या है तेरा तसव्वुर
कभी ‘दाग़’ को हम ने तन्हा न देखा