कैसे खत्म किया यूरोपियनों ने हमारी सभ्यता संस्कृति को?

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किसी सभ्यता या संस्कृति को ग़ुलाम बनाना हो, उसे ओछा साबित करना हो तो उसे उसकी सांस्कृतिक जड़ों से काट दो, जिससे वह सभ्यता अपने गौरवशाली इतिहास से वंचित हो जाए।’ दुनिया के सभी आक्रमणकारियों का यही सिद्धांत रहा है। दुर्भाग्यवश, भारतवर्ष पर इस सिद्धांत को फ़ारसियों से लेकर अंग्रेजों तक सभी आक्रांताओं ने थोपने का प्रयास किया और वे कुछ हद तक इसमें सफल भी रहे। अपने तथाकथित जातीय दम्भ में चूर अंग्रेजों ने तो भारतवर्ष को एक ‘राष्ट्र’ तक मानने से इनकार कर दिया था और अपने औपनिवेशिक शासन को तर्कसंगत साबित करने के लिए समाज में ये झूठ फैलाना शुरू कर दिया था कि ‘आर्य’ स्वयं विदेशी आक्रमणकारी थे, जिन्होंने सिंधुघाटी सभ्यता पर आक्रमण करके अपनी वैदिक सभ्यता बसाई थी। समय के चक्र ने अंग्रेजों को तो वापस इंग्लैंड भेज दिया

लेकिन उनके कुतर्कों को आज भी कुछ तथाकथित बुद्धिजीवियों ने न सिर्फ़ सहेज कर रखा है, बल्कि समाज में प्रचारित-प्रसारित भी किया है। हम सब को अब तक ऐसा ही एकांगी इतिहास पढ़ाया जाता रहा है, लेकिन अब समय ऐसे कुतर्कों को खंडित करने का है।

डेक्कन कॉलेज के पूर्व कुलपति डॉ. वसंत शिंदे और बीरबल साहनी पुराविज्ञानी संस्थान, लखनऊ के डॉ. नीरज राय की अगुवाई में में कुछ साल पहले वैज्ञानिकों ने हरियाणा के हिसार ज़िले के राखीगढ़ी से प्राप्त हड़प्पा कालीन नरकंकालों के डीएनए टेस्ट से ये साबित कर दिया कि आर्य भारतवर्ष के ही मूल निवासी थे। वे न ही आक्रमणकारी थे और न ही कहीं बाहर से आए थे। साथ ही यह भी साबित कर दिया कि उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक

पूरब से पश्चिम तक सभी भारतीयों में डीएनए की आधारभूत संरचना एक जैसी ही है, यानी उत्तर-दक्षिण और द्रविड़-आर्य के नाम पर अब तक फैलाया जाने वाला विवाद निराधार था।

और अब बात करते हैं दूसरे झूठ की यानी ‘भारत कभी राष्ट्र था कि नहीं!’भारत एक राष्ट्र था, है और सदैव रहेगा। दरअसल, देश और राज्य से इतर राष्ट्र एक सांस्कृतिक भावना होती है, जिसका निर्माण एक जैसी संस्कृति, एक जैसे इतिहास और एक जैसी भावनात्मक एकता के द्वारा होता है। दूसरे शब्दों में कहें तो देश और राज्य का नक्शा आप काग़ज़ पर बना सकते हैं, लेकिन राष्ट्र का नहीं! क्योंकि देश और राज्य की एक निश्चित सीमा होती है, लेकिन राष्ट्र की कोई सीमा नहीं होती। दुनिया में जहां-जहां तक भारतीय रहते हैं, उनके मन में भारत के प्रति एक गौरवपूर्ण अपनत्व की भावना पैदा होती है, वहां-वहां तक भारतीय राष्ट्र विस्तृत है।

‘राष्ट्र’ शब्द और ‘राष्ट्रीय भावना’ दुनिया को हमारे वेदों से मिली हैं।